यूँ तो दिन ठीक ही बीत जाता है मगर..
शाम होते ही अटकने लगती है साँसे
तुम्हारी याद फँस सी जाती है कही गले मे।
निकालती हूँ फिर उसे रूंधे गले से,
सिसक-सिसक कर ,के बह जाए ये आँखो से।
के खत्म कर सकूँ तुम्हारा मेरे अंदर जमे होने को...
अब दिल से ये खेल मैं हर शाम खेलती हूँ।
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