याद नहीं आता, कब आख़िरी बार,
स्वछंद नभ में, पुच्छल तारों को ढूंढा हो।
देखने को कोशिश की हो, मंदाकिनियों को,
निहारा हो, टिमटिमाते तारों को।
दिल खोल कर बात की हो, प्रकृति से,
कल्पवृक्ष से, उसकी ठंडी छांव में बैठ,
पूछा हो, कितनी सहनशील हो तुम।
देखा हो, अपनी ही दुनिया में मस्त,
उछलती-कूदती गिलहरियों को,
मूंगफलियों को इकट्ठा करते।
सोचा हो, क्यों न हाल पूछ लूँ,
उस कमरे में अकेली, बैठी अम्मा का।
इजहार करूँ, मेरे परिवार वालों से,
मेरे दिल में सम्मित, अगाध प्रेम का।
और न जाने कितनी ही, असंख्य बातें है,
जो फ़िर से, जीना चाहता हूँ!
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