क्या कहने तुम्हारे दिल की अदालत के
अधिवक्ता तुम, सबूत भी तुम्हारे
न्यायाधीश तुम, साक्ष्य भी तुम्हारे
न्याय की जगह पर नाइंसाफी
सज़ा के नाम पर केवल माफ़ी
गलती तुम्हारी तो तुम मुल्ज़िम
अगर हो हमारी तो हम मुजरिम
बिना सुनवाई के ही हम गुनेहगार
सज़ा में मिला यादों का कारागार
ना मंज़ूर हैं निर्णय, फिर मुकदमा चलाएंगे
इस बार अपने दिल की अदालत बिठाएंगे
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