अब मैं पाता हूँ कि मैं सभी से छूट गया। ना...... किसी ने मुझे छोड़ा नहीं और न ही मैंने किसी को छोड़ा। बस लोग नयापन चाहते रहे और मैं पुराना, भ्रांति के कीचड़ में सना हुआ और अतीत की गर्द में लिपटा। मेरी सहजता समाप्त होती रही, धीरे-धीरे। पहले जैसा सहजता का भाव ख़त्म हो गया सभी के साथ। सहजता का घटता क्रम ही, छूटने की हरी झंडी होती है और मैं दुर्भाग्यवश उस झंडी तक पहुँच गया। वक़्त कितना निष्ठुर है ना, ठहरकर अफ़्सोस भी नहीं करने देता, अपने ही प्रिय जीवन पर।
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