अोहदा-ए-मुंसिफ़ से हर मुंसिफ़ भी देगा इस्तीफ़ा
अगर इश्क़ के हकदार को उसका हक देता नहीं है
नहीं मुमकिन है गमे मोहब्बत का हर दर्द सहना
क्यूंकि हर दिल का कातिल भी हर मुंसिफ़ ही है-
इन आँखों को मत जलाओ मुंसिफ़ ये नहीं मुजरिम
मेरी नीयत के आदमी ने देखा था उस औरत को-
कानन गमन क्यो करे
आखेट के वास्ते
क़त्लेआम अब
सरे बाजार हो रहा
न्यायालय का रूख क्यो करे
मुज़रिमो का मुंसिफ़ के
घर आना जाना हो गया
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मुंसिफ़ भी वही निकला यारो
जो मेरा ही गुनाहगार था,
ये कैसी उलझन है कि
मैं उसी से ही इंसाफ़ की उम्मीद कर बैठी।-
मेरे जैसा कहीं कोई और न दूजा है
दिल मेरा मुंसिफ और ज़हन मेरा खुदा है-
खामोशियाँ
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मेरी खामोशियाँ गर बोल पाती, इस दिल के शोर को जता पाती।
मेरे जज़्बातो को समेट कर अल्फ़ाज़ों में ब्यान कर पाती है।
मुमकिन नहीं तब तक इस दिल-ए-तंगी को मीटा पाना।
दिल-ओ-दिमाग के दरमियान इख़्तिलाफ़ है।
खैर के जुबान से मुंसिफ़ मुमकिन नहीं।
गर मेरी खामोशी समझ सको तो बताना,
माज़रा क्या है?-
इस दुनिया में खुदा ही मुंसिफ़ है
किसने क्या सही किया है,क्या गलत किया है
सब खुदा ही बताता साफ़-साफ़ है
वो ही करता सबका इंसाफ है
सच में जनाब! दुनिया में खुदा ही मुंसिफ़ है।-