# "ज़मीं से फ़लक पर बस ख़्याल का बसर है,
लगता है उस बेग़ैरत के मोहब्बत का असर है!
इन ख़ामोश निग़ाहों की बंदगी है उन नज़रों में,
तभी ये छिपे अश्क़ भी आँखों में लगते बेअसर है!
शर्मिंदगी हो मेरे साथ से उनको तो दूर जाऊं मैं,
न हो तो उनकी मुस्कुराहट का ताउम्र सबर है!
दूरियाँ भी अब पास सी लगने लगीं हैं इस दिल को,
अंजाम से अनजान सा है अब नही कोई कसर है!
अरे, कोई जाके पूछ तो ले उनसे आज़ कि,
क्या इस बेपनाह मोहब्बत की उनको भी ख़बर है?
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