बुझ-सी गई है लौ मसाल-ए-क्रांति की,
न जाने कब जली थी,सदियों पहले या
दशकों पहले,वक़्त को कुछ भी याद नहीं...
कभी-कभार राख से धुँआ उठती तो है,
कुछ चिंगारियाँ भी सुलगती तो है मगर,
बनने से पहले हीं शोला खाक हो जाती है...
बड़ें शातिर हुक़्मरान है इस मुल्क़ के यारों,
या फिर कायर आवाम है इस मुल्क़ में यारों,
जो हर सितम सहकर भी चुप हो जाती है...
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