पात पात छेड़े मुझे रंग अंग ऐसे छुए हया के गाल रंग गयी गुलाल लाल मैं हुयी बन विहग अपने नभ की मीन हूँ अब भी जल की मन लहर हिलोल उठे छुअन को किलोल उठे रंभा हूँ न उर्वशी मैं तुम नहीं हो अनमनी मैं छू लो अंग संग लगा तेरी प्रीत मेरा मन रंगा
आज फिर देखा एक स्वप्न बड़ा! तुम फिर आये और समीप खड़ा! मैं फिर भूली सब दर्द भला! तूने फिर बाहों में डाल लिया! धड़कन ने फिर मल्हार किया! तूने फिर मुखमंडल चूम लिया! मैंने फिर लाज का घूँघट ओढ़ लिया! तूने फिर अस्तित्व को मान दिया! मैंने फिर तुझको सम्मान दिया! एक पल में फिर जैसे ही चित्त खुला! ना तुम थे ना कोई अपना था! ये तो बस एक सपना था! ये तो बस एक सपना था!
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