काश अपने भी हमें कुछ सताया करते
फिर पराये रोज़ दिल में समाया करते
उनकी आँखों का नशा भी मज़ा देता कुछ
लोग फिर क्यों मय-कदों को ही जाया करते
नक़्श-ए-मसर्रत पास होता नहीं गर सबके
दिल ये अपना रोज़ किस से लगाया करते
इक तख़य्युल भी किसी का नहीं आता फिर
याद किस की अपने दिल को दिलाया करते
चश्म-ए-क़ातिल हैं सभी आँख जिसको देखो
जुर्म-ए-उल्फ़त आप किस से छुपाया करते
ज़िन्दगी में दर्द होते नहीं जो 'आरिफ़'
लोग दुखड़े अपने किस को सुनाया करते
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