सडक पर बंदरिया नचवाते उन बूढे हाथों को
पेट की भूख नचवाती थी अपने इशारों पर
बंदरिया गले पर डोर
और वह मुफलिसी की बेडियां बांधकर
बनते थे खुद लोगों की हंसी की वजह
किस्मत ने अलग ही धून पर नचाया उन्हें
कुछ आए समाज की भलाई के ठेकेदार,
छीनकर ले गए उसके मुंह का निवाला
उसके पेट पर लात और
उस बंदरिया पर आजादी की दुआ का हाथ रखकर
बंदरिया का पता नहीं, पर
बूढा अपना सडक पर मर गया...
दिल में यही कसक रखकर कि
एक गूंगी जान के खुली सांसो के लिए
उसकी सांसे छीन ली गई थी।
जानवर जिलाता हैं इंसान को,
और इंसान ही इंसान को....
जाने दो, समझदार हो... समझ सकते हो!!
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