सोचो अगर हम साथ होते तो कैसा होता ...
अलसाई सी सर्दियों की सुबह होती ,मेरे हाथों में चाय के दो प्याले होते और मेरी जुल्फों से टपकती पानी की बूंदे तुम्हारे चेहरे को भिगोती तुम कनखियों से मुझे ताकते ..
सोचो अगर ... तुम्हें बाहर जाने की जल्दी होती और तुम्हारे कुर्ते का बटन टूट जाता मैं भुनगभुनाती सी उचक उचक कर तुम्हारे कुर्ते के बटन टाँकती और तुम झुक कर मेरे माथे पर एक बोसा रख देते तब मैं घूर के तुम्हें देखती ...
सोचो अगर ..
हम घूमने जा रहे होते और तुम्हे किसी काम से अचानक जाना पड़ता है मैं गुस्से में तुम्हारी गाड़ी की चाबी छिपा देती तुम मुझे मनाते मैं आंखें दिखाती और फिर डबडबाई आंखों से चाबी तुम्हें थमा देती ...
सोचो अगर ....
एक दिन अचानक मैं तुम्हें छोड़कर तुमसे बहुत दूर चली जाती फिर एक दिन नन्हीं गौरैया बन कर तुमसे मिलने तुम्हारी खिड़की पर आती और जोर जोर से तुम्हें पुकारती तुम्हें मेरे वहां होने का एहसास तो होता मगर मै नही दिखती तुम बेचैन होकर खिड़की तक आते और मुझे देख कर भी मुझे ना पहचान कर वापस मुड़ जाते..
सोचो अगर...
मगर नही .... रहने दो...
तुम कहाँ सोच पाओगे ये अल्फाज ए ख्यालात.. जिनमे,
मैं एक जिंदगी जी लेती हूँ साथ तुम्हारे ...
तुम तो मगरूर हो अपनी ही परिभाषाओं में..
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