तड़प उठती है आंखे मेरी,कांप जाता है तन बदन,
कितना अद्भुत अप्रतिम जिंदगी का मंजर है।
लगी है होड़ इक दूजे को गिराने की,
टांग खींचकर अपनों की, हर कोई बनने में लगा सिकंदर है।
ना प्रेम ना विश्वास है,ना करुणा ना दया है,
अंधे है मोह में माया के, किसी पछतावे की ना हया है।
धूर्त चालाकी से भरा हुआ मानव, राष्ट्र की हालत जर्जर है,
सामने सब लगते है अपने ,पीछे से घोंपते अपने ही खंजर है।
खाना भरके फेंक रहा,कोई खाने को यहां तरस रहा,
कोई गुम है अपनी मस्ती में ,कोई नफरत की आग में झुलस रहा।
कहीं कहीं हरी भरी धरती खुशियों से , कहीं दुःख में वसुधा बंजर है।
कितना अचंभित है हाल यहां का ,क्या अजब जिंदगी का मंजर है।🙏
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