हमारे हाथो की लकीरे कब एक हुई पता ही ना लगा आपने मुझे अपनी तरफ कब खींच लिया पता ही ना लगा कब तुम हमारी इबादात में दुआ बनकर आने लगे पता ही न लगा....... तुम्हारी दुनिया में मैंने खुद को कब रंग लिया पता ही ना लगा दुनिया की भीड़ में ना जाने हमने खुद को कहां खो दिया था ये कुदरत का इत्तफ़ाक़ नही हमारी हाथो की लकीरों मे लिखा था
बाज़ार में भीड़ कुछ पहले सा लगता है, कोरोना का डर अब लोगों से खत्म सा लगता है, प्रिये अब तुम भी लौट आओ हमारे शहर में, बिन तेरे मेरे लिये ये शहर तो वीरान सा लगता है।