बिन शब्द कहे जो सब कहे तुम उस अद्भुत भाषा जैसी
किसी मरणासन्न के हृदय की तुम जीवन अभिलाषा जैसी
तुम्हें प्रेम कहूँ, वैराग्य कहूँ, कहूँ भक्ति या फ़िर भाग्य कहूँ
इन सब से परे हो तुम इनकी साझा परिभाषा जैसी
वो जीत जाए जो पाए तुम्हें, हार कर भी अपना सबकुछ
हर निराशा है परास्त तुमसे तुम एक अमर आशा जैसी
तुम कर्तव्य, समर्पण का पर्याय, तुम सचमुच कितनी पावन हो
पुत्री, पत्नी, सखी, भगिनी, और कभी माता जैसी
कुछ भी नहीं तुमसा यहां, तुम अद्भुत, अतुल्य हो
इस विधाता के विश्व में, तुम स्वयं विधाता जैसी..
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