उफ्फ ये ठंड और कुहासा
अन्तः मन फिर भी क्यो प्यासा
लहर वही साहिल से टकराई
मिलन की जिसने प्यास जगाई
बूँद शबनम की बन गई मोती
जो सीप की पनाहों में थी सोती
आरज़ू -ए-दिल क्या समझेगा ज़माना
धूल रिवायतों की पड़ती है हटाना
इश्क फैलकर मिटता गया धुंध की तरह
दरिया -ए -जिंदगी में भाप बनती रही
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