दीया बुझा था, रात जली थी
कविताओं की बात चली थी
एक भँवरा था, एक कलि थी
हृदय में मची खलबली थी
साँसों का चढ़ना उतरना
दाँतो का जिस्मों को कुतरना
काँटों बीच महकते गुलाब
दहकती ख़्वाईश बहकते ख़्वाब
ख़ामोशी करती रही बात
न थमी आँखों की बरसात
अधरों ने अधरों को छुआ था
नशा नज़रों को हुआ था
तन भीगा था मन भीगा था
चाँद का भी ईमान डिगा था
दोनों का रिश्ता अनूठा था
प्यास सच्ची थी प्यार झूठा था
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