कि थक चुके हैं यह कदम सफर की ठोकरों से,
रुक जाऊँ मैं जहाँ, मेरे लिए वो मंजिल बनोगे क्या!
रास नहीं आती अब मुझे यह शहर की फूल पत्तियां,
बैठ सकूँ मैं जिसके नीचे, गाँव का वो बूढ़ा शज़र बनोगे क्या!
गा रहीं हैं गीत ये हवाएँ किसी की पाक़ मोहब्बत का,
जो सुनना मैं चाहूँ तसल्ली से इनसे, तुम वो गज़ल बनोगे क्या!
भीग चुका है यह सारा जहां बारिशों की बूंदों से,
अब मेरे चेहरे पर जो गिरे, बरखा की वो आखरी बूंद बनोगे क्या!
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