इबादत का ढंग अपना अपना था,
चाहत का रंग अपना अपना था।
फ़िराक़ से दोनों ही वाक़िफ थे मगर,
दिखाने को रंज अपना अपना था।
इक सरहद थी जिसकी हद बेहद सी दिखती थी,
जो ख़त्म होती नहीं बस बढ़ती ही रहती थी।
इस पार जो शुरू हुई मोहब्बत की दास्तान,
उस पार दरिया के किनारे ख़त्म होती थी।
थे दोनों खड़े साहिल पर एक दूजे को निहारते हुए,
किस्मत की लगाई दोनों पर तंज अपनी अपनी थी।
कोई लड़ रहा था मिलने को, कोई बिछड़ने को राज़ी था।
इस इश्क़ में बगावत की जंग अपनी अपनी थी।
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