QUOTES ON #फ़िराक़

#फ़िराक़ quotes

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12 JUL 2020 AT 12:23

जख्म भरा या नही रोज पूछ लेता है,
न जाने किस फ़िराक़ में रकीब है।

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20 JUL 2018 AT 23:41

किसी के फ़िराक़ में तमन्ना है मर जाने की
किसी के विसाल में ज़िन्दगी मिल जाये कभी

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30 APR 2017 AT 21:18

मुकम्मल इश्क़ कहाँ होता है
एक मुख़्तसर फ़िराक़ के;
ख़ुशियाँ अधूरी होती हैं
बिना ग़मों की आँच के!

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9 SEP 2019 AT 15:13

ज़रा तबीअत उधर नही है हयात से कुछ जवाब ले लूँ...
जो फ़िराक़ मे तेरे कट गई है मैं इससे उसका हिसाब ले लूँ...
ये दिल तुम्हारा मुझे ना दो तुम तो मुझपे एहसान हो तुम्हारा...
नही है हिम्मत जरा भी मुझमे मैं अपने सर ये अज़ाब ले लूँ...!

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22 APR 2021 AT 12:54

जल उठा हैं मकान किसी का,
देख रहे हैं घर को जो ,वो पानी की तरफ क्यों नहीं देखते,
फ़िराक मे है जो यहां ऐब निकालने को,
उम्रदराज वाले अपनी जवानी क्यों नहीं देखते....

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4 JUN 2020 AT 13:29

इन्सान था इन्सानियत खो गई,
जानवर भी न बन पाया ठीक से,
भगवान् बनने की फ़िराक़ में हूँ।

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16 APR AT 22:31

बने-बनाए साँचे में ढलना भी क्या
नाम-ओ-निशाँ को बदलना भी क्या

सोच सही होती है सच्चाई के संग
झूठी तारीफ़ से पिघलना भी क्या

जिस सफ़र की कोई मंज़िल नहीं
उसी रहगुज़र पर चलना भी क्या

बारहा जिद न करो फूल तोड़ने की
तमन्ना-ए-दिल का मचलना भी क्या

और भी काम बचे मोहब्बत के सिवा
फ़िराक़ की आग में जलना भी क्या
----राजीव नयन

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30 DEC 2019 AT 1:25

कश्ती हमारी समंदर में सियह - बख़्ती का शिकार हो गयी
इश्क़ में उनकी हमारी जिंदगी ताउम्र गुलज़ार हो गयी

जलते रहे मशाल और चराग़ - ए - इश्क़ दिल में रात भर
उनकी मोहब्बत की रवानगी इक दिन ऐसी सवार हो गयी

हो जाते हैं शज़र के पत्ते भी जमीं के हवाले इक मौसम में
हमारी जिंदगी भी अब उम्र भर के लिए उनकी ही दयार हो गयी

सबब-ए-फ़िराक़ और विसाल की बातें अब हमसे पूछे ना ज़माना
न जाने क्या हुआ जो अचानक मोहब्बत हमारी गुबार हो गयी

दिल टूटने पर सोग - नशीं का शौक नहीं हमको महफिलों में
क्या हुआ अगर जो गलती हमसे एक बार हो गयी


— आशना

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7 MAY 2023 AT 16:06

अंजाम से सहमकर तुमने रस्ते बदल लिए
झुलसता रहा मैं इधर आतिश-ए-फ़िराक़ में
----राजीव नयन

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24 JUN 2019 AT 23:10

इबादत का ढंग अपना अपना था,
चाहत का रंग अपना अपना था।
फ़िराक़ से दोनों ही वाक़िफ थे मगर,
दिखाने को रंज अपना अपना था।

इक सरहद थी जिसकी हद बेहद सी दिखती थी,
जो ख़त्म होती नहीं बस बढ़ती ही रहती थी।
इस पार जो शुरू हुई मोहब्बत की दास्तान,
उस पार दरिया के किनारे ख़त्म होती थी।

थे दोनों खड़े साहिल पर एक दूजे को निहारते हुए,
किस्मत की लगाई दोनों पर तंज अपनी अपनी थी।
कोई लड़ रहा था मिलने को, कोई बिछड़ने को राज़ी था।
इस इश्क़ में बगावत की जंग अपनी अपनी थी।

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