ना सफ़र का पता है, ना मंज़िल की ख़बर एक अंजान सा फ़लसफ़ा है और रास्ते बेख़बर_! एक रोज़ रफ्ता-रफ्ता साया-ए-दीवार बन जाएंगे तुम मुस्कुराते ही रहोगे, हम अलविदा कह जाएंगे_!
मैं रेत पर तमाम क़िस्से लिखती हूँ कहानी की अंतिम खड़ीपाई के साथ बुलावा भेजती हूँ तेज़ तजुर्बेकार हवाओं को वे जब आती हैं तो सौंप देती हूँ अब तक के तमाम फ़लसफ़े उनकी हथेलियों में किसी और तक उन्हें पहुँचाने के लिए नहीं! बस अपने भीतर समाकर दूर बहुत दूर किसी अनन्त में उड़ा ले जाने के लिए ठीक उसी तरह जैसे बचपन में मैं बहती नदी की धार में कोई जलता दीपक बहा आती थी।
जीतना फिर हार जाना, बस यही चलता रहेगा मुश्किलों के दौर में ये, फलसफा जिंदा रहेगा। लोग ताने दे रहें जब, याद आता है समन्दर कौन है जिसने उसे यूं , टूटते देखा न होगा।