चुनाव की तीव्र आँधी चल रही है आरोपों की धूल उड़ रही है नफरतों का कचरा फैल रहा है विश्वास के खंबे लुड़क रहे हैं संबंधों के तार झूल रहे हैं सभ्यता की दीवारें ढुलक रही हैं भाईचारे की छतें दरक रही हैं अमन के कबेलू चटक रहे हैं सौहाद्र के दरख़्त उखड़ रहे हैं अपनेपन की टहनियाँ टूट रही हैं हर आँख में घृणा की किरकिरी है और बेचारा अतुल्य भारत.. घबराया, सहमा सा एक हाथ से धोती तो दूसरे हाथ से पगड़ी संभाले इस तूफान के गुज़र जाने की प्रतीक्षा में है... है ना 'फनी'...?