आकाश की थाली पर लाली चमक रही है,
पाखड़ के झुरमुटों में बुलबुल फुदक रही है,
कुछ शेष रह गयी हैं नभ में मयंक-रश्मि
अभी बीतने में रजनी विलम्ब कर रही है।
उषा सँवर रही है।।
लो! चंद्रमा ढिबरी की ज्वाला घटा रहा है,
कोकिल हो मग्न वृक्ष में गाना सुना रहा है,
आलोक लोक में अब बढ़ता ही जा रहा है,
अंधकार की गोदी में किरणें बिखर रही हैं।
उषा सँवर रही है।।
तारों की कणिकाएँ विलुप्त हो रही हैं,
क्षण-क्षण में जैसे इक-इक ये सुप्त हो रही हैं,
क्या चोर हो गई है देखो तो यह विभारी
चुन-चुन के वज्रमणियाँ झोली में भर रही है।
उषा सँवर रही है।।
पर्वत शिखा पर जैसे सिंदूर गिर रहा है,
लता के तंतुओं पर दानु भी पिर रहा है,
क्या अर्क का धरा से विवाह हो रहा है
धारण किये मालाएँ धरती निखर रही है।
उषा सँवर रही है।।
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