ये दग़ाबाज़ चालबाज़ तुम ही हो न
ओढ़कर सफ़ेद लिबास तुम ही हो न
आ गए हो इक रात के शहंशाह बनके
चस्मक से आज कुल कहकशाँ चमके
मैं मगर आऊंगी न झांसे में तुम्हारे आज
नींदें चुराने वाले जालसाज़ तुम ही हो न
महीना दर महीना भेस बदल आ जाते हो
फैला अपना रूप मन मेरा मोह ले जाते हो
इस दफ़ा कर दिए हैं सब झरोखे बंद मैने
आँखों से मन में उतरते बहरूपिए तुम ही हो न
चाँदनी तो आ गई है तुम्हारे बेहकावे में ही
चकोर ने भी कर लिया शीतलताई पर यकीं
मैंने तो मगर देखी हैं ऐसी झूठी पूनम कई
फिर घटकर खो जाने वाले महताब तुम ही हो न
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