सुनो...
ये जूही का उदास पौधा देख रहे हो...!
इसके श्वेत पुष्प कितने आभाहीन हो गए हैं.?
नेत्रों के साथ हृदय को भी ठंडक पहुंचा सकती थी
दुःखों की औषधि बनने की भी थी संभावना
किन्तु,
नहीं, संवरण कर सकी
लोभ.. पुरानी मिट्टी का
नहीं, सहन कर सकी
चिरपरिचित गमले से विलगाव
नहीं, सामंजस्य बिठा पाई
नई परिस्थिति में
नहीं, आया उसे रास
अकारण ही मिला, "भौगोलिक प्रवास"
सुनो...
जो इक टुकड़ा स्थान भी
नहीं मिला, तुम्हारे उर में
नहीं, कभी कह सकी तुम्हें
क्या घटा, हृदय के अंत: पुर में
अब लिखूं तुम्हें तो समझोगे क्या...?
कि अब सहन नहीं होता मुझसे भी
अकारण ही मिला हुआ "भावनात्मक प्रवास"।
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