वक़्त के इंतजार में वक़्त बर्बाद ना कर,
वक़्त को अपना बनाने के लिए पुरूषार्थ कर...-
पुरुषार्थ के पौरूष में दबे... पुरुष को,
देखा है मैंने आँचल ढूँढ़ते रोने के लिए।-
वो जो तुम्हें वो गुलाम सा लगता है,
परिपक्व है पुरूषार्थ उसका,
गुलाम हो, वो मुझे गुलाम करता है।-
आत्मा जैसा पुरुषार्थ करती है.....
वैसी बनती है....
कोई किसी का रोड़ा नहीं बनता.....
न भाग्य छीनता है...
जुनूनी दिल ...
अंधेरे में में भी रोशनी देख लेता है...
और आलसी दिल...रोशनी में भी ...
अंधेरे की बात कहता है...
जो दिल पुरुषार्थ से...
संपूर्णता को पाकर..
समयातीत हो जाते हैं...
वे समय को ..अपनी मुठ्ठी में कर....
सदा के विजेता बन जाते हैं...-
जानते हो तुम,
तुम्हारे लिए... इक भी
गलत शब्द का
उच्चारण मात्र भी
करते हुए,
मेरा मस्तिष्क
सौ... बार सोचता है।
(पूरी रचना अनुशीर्षक में)
-
मैं नारी-वादी हूं पर कतई नर विरोधी नहीं,
मानती हूं संस्कृति को पर सोच मेरी रूढ़ी नहीं!-
भूल जाता है एक पुरुष ,
जीवन की तमाम पीडा़ ,
जब खिलखिलाती है स्त्री ,
उसकी, बेखौफ़ खुल कर ।
-
थका-माँदा पुरूष
लौट आता है हर शाम
अपना घर समझ कर
थका-माँदा पुरूष ।
तानों के बीच बैठ कर
तोड़ लेता है निवाला
थका-माँदा पुरुष ।
सिकुड़ कर
दुबक कहीं सो जाता है
कल जल्दी उठने के लिए
थका-माँदा पुरुष ।
-
"मनुष्य के पुरूषार्थ की कोई सीमा नहीं होती,
एक बार जल जाने पर ये लौ कभी धीमे नहीं होती।।"
- अंजली सिंघल
-