'पहाड़ की छांव'
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बचपन बीता जिस पहाड़ की छांव में
उस छांव से ही मुंह मोड़ चला..
थाम ली ख्वाबों की डगर
और मुसाफ़िर बन मैं चल पड़ा,
छोड़कर उस पहाड़ की छांव को पीछे
आगे-आगे मैं चल दिया..
मगर आगे मिले जो जिम्मेदारियों के पहाड़
फ़िर उन्हीं में उलझकर मैं रह गया,
भटका बहुत राहों में
अपनों से भी दूर हुआ..
देखे कई पहाड़ जीवन में
मगर उस पहाड़ की छांव के लिए तरसता रहा,
देख जीवन की तमाम लहरें
मैं गिरा,संभला,उठा और चला..
बस इस तरह....सुकून की तलाश में मैं
सुकून को ही छोड़ चला..!
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