हक़ीक़त ही होती अगर ये सारी दुनिया तो बाज़ारों में यूँ नक़ाब सरेआम ना बिका करते -A काश हम में होता हुनर इंसान पहचानने का, यूँ लोगों को समझने में नहीं चूका करते -E
कुछ उम्र गुज़री ख़ुद को जानने में, तमाम उम्र गुजारना चाहता हूँ, तुमको अपना मानने में! अब तो तुमसे भी सिर्फ़, इतनी सी गुज़ारिश है, तुम अब और वक़्त जाया न करो, अपने "स्वतंत्र" को पहचानने में.!
जो भी मिला मुझसे यहाँ मिरे मुरीद हो गये थे फ़ासले बहुत मगर मिरे क़रीब हो गये कोई हमराज़, कोई हमदर्द, कोई हमनफ़स नहीं, हुज़ूम यूँ तो बहुत है पहचानने वालों की मगर तन्हाई फ़क़त मिरे ही दिल के क़रीब हो गये
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