यूं ही इक ख्याल आया...
ये जो विचार पढ़कर फिर अपने शब्दों में लपेट लेते हो, ये जो बात है न लेखन का समझ नहीं आता... इसे भी एक डब्बे में डालते जाओ, ये तुम्हारा है ही नहीं। इक ही परिपाटी को घिसे चले जा रहे, क्यों? मानकता और मौलिकता का अभाव स्पष्ट दिख रहा। कुछ हिंदी के भारी भरकम शब्दकोश लिए फिरते हो और वहीं बातें लेकर बैठ जाते हो।
अच्छा... कोई न लिखना अधिक ज़रूरी है और उससे भी अधिक ज़रूरी... प्रशंसा करना... अपनी नहीं, अपने लिए... सबकी।
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