* परजीवी *
भीतर से तुझको नोंचता, जो चोट चोट खरोंचता...
जिह्वा पर स्वाद रक्त का, हृदय से ना कभी सोचता...
बहता लहू जो चाटता, तुझे टुकड़ा टुकड़ा बांटता...
नखशिख सना है दम्भ में, तेरा अंग अंग काटता...
ना सर्प ना वो बाघ है, अंतः तमस सी आग है...
विश्वास का कातिल अजर, सहस्त्र फन सा नाग है...
उगता फनी के फूल सा, चुभता हृदय में शूल सा...
कहीं और जन्मा है अमर, कहीं और पनपे भूल सा...
धन है नहीं न नीवी है, बिन तन का ही यह जीवी है...
अस्तित्व खुद का है नहीं, **(अ)हंकार** एक परजीवी है।।
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