अरसे बाद,
आज फिर कलम उठायी थी
लिखूँ या न लिखूँ , क्या लिखूँ
इसी पशोपेश में उलझी हुई थी
की अचानक,
नजर पेपरवेट तले रखे पन्नों पर पड़ी |
कागज का खालीपन मुझे एकटक देख रहा था
वही खालीपन, जो मैंने महसूस किया था
उसके जाने के बाद
मानो उसका अधूरापन पूछ रहा हो मुझसे
"आज भी नहीं लिखोगीे? स्याही से कब तक दूर रखोगी?"
फिर क्या..
मैंने भी झठ से मुँह फेर लिया..
पर..उसका सवाल..
मन को भीतर ही भीतर कचोटे जा रहा था
सवाल नहीं मानो अस्तित्वहीनता हो
अगर लिखूँ , तो वादा खिलाफी,
और अगर नहीं , तो वज़ूद से नाइंसाफी
वही, उस से किया हुआ वादा
"जो तुम चले गए मुझे छोड़कर , मैं भी लिखना छोड़ दूंगी "
अाज भी,
उलझा रही है मुझको ये कशमकश अंदर से
कुरेद कुरेद कर पूछती हूँ खुद से
बेवफ़ाई तुमने की या
वफ़ा मैंने नही निभायी काग़ज़ के कोरेपन से |
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