"पन्ना का राष्ट्र-प्रेम"
मेवाड़ के टिमटिमाते दीपक को बुझाने वाला था,
जो उदय होते सूर्य को ढकने वाला था।
चल रहा था तेज बहती अंधड़ सा वह,
अब वह दुष्ट, निर्दयी कहाँ रुकने वाला था।।
लेकर खड्ग, उदय को अस्त करने वाला था,
इस धरा पर एक और अधर्म करने वाला था।
ना जाने क्या सत्ता का लालच था उसके मन में,
जो राष्ट्र के अहित का अब दम भरने वाला था।।
छल-कपट से वह राज्य हथियाने वाला था,
वह क्रूर, कायर, अहंकारी अत्याचार करने वाला था,
शायद उसे यह विदित था ही नहीं कभी
उसके हाथों से मेवाड़ का माझी बचने वाला था।।
माता वो थी जिससे राष्ट्र का हित होने वाला था,
जिसका वह अद्भुत त्याग इतिहास गढ़ने वाला था।
आया था कायर बन वीर वह धृष्टता के लिए,
चंदन को असमय अब चंदन मिलने वाला था।।
माता की आंखों के आगे खड्ग से जो प्रहार हुआ,
दबा रह गया हृदय के भीतर वो करुण चीत्कार हुआ,
मेवाड़ी दीपक को बचाने अपना दीपक बुझा दिया,
इस दीपक से ही मेवाड़ का भाग्योदय फिर से हुआ।
जय हिन्द, वन्दे मातरम्।।
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