पिंजरे में कैद दरिंदा है। बेहतर है कि वो वहीं रहे जहाँ उसे होना चाहिये। निकल गया तो न आपको सही से जीने देगा न आपके करीबियों को। जबतक ये कैद है आप आज़ाद हो, जिसदिन ये आज़ाद हो गया आप कैद हो जाओगे।
यूँ भी अचानक.. मन द्रवित कई बार हो जाता है अपरिचित से सफ़र पे भी.. चलने को यह तैयार हो जाता है, जिसकी ना मंज़िल कोई.. ना कोई ठिकाना उस पंथ से भी.. जीवन में प्यार हो जाता,
दो विपरीत दिशाओं का साथ चलना मुम्किन नहीं है बस यूँ ही बेवज़ह किसी का इंतजार हो जाता है, ईक़ विमुख सी अनुभूति .. दर्पण दिखाये के सम्मुख जिस्म-ओ-जाँ का दिदार हो जाता है,
ख़्वाईशों की तरंगिणी में.. यह कश्ती सा मन है यह क़भी इस आर.. तो क़भी उस पार हो जाता है, अज़ीब से घर में.. यह बसर करता है के मन क़भी दर.. तो क़भी.. दिवार हो जाता है, यूँ ही अचानक.. मन द्रवित.. कई बार हो जाता है!!
आसमान से ऊंचे ख्वाब देखना भी तो हमारे लिए मुनासिब नहीं, रिश्ता में बंधे इंसान है हम,पंछी भी तो नही हमारी उड़ान बस एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक है, आसमान हमारी किस्मत में भी तो नही...!!!