"काग़ज़ पर कलम यूँ थिरकी-थिरकी जाए,
मुरली की धुन पर ज्यूँ राधा नाची आए।
ख़ामोशी के लबों पर शब्दों ने ऐसे बाण चलाए,
जैसे प्यासा-प्यासा सावन धरती को गले लगाए।
कोरे-कोरे पन्नों पर यों अक्षर बिखरे-बिखरे आए,
कतरा-कतरा सागर तक नदी जो बहती जाए।
अरमानों के मोती नग़्मों को ऐसे बुनते आए,
ऊँचे-ऊँचे पर्वत जैसे अंबर को छूते जाएँ।।"
- अंजली सिंघल
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