वो पिछली धूप के निशां फीके पड़ गये है,
बाती की तरह जिन्हें संजो कर रखा था मैंने..
तुमको ढकी पसन्द थी मैं इसलिए तो नही,
पर वो निशां गहरे न हो तो ख़ुद को तहों में लपेट लिया था मैंने..
वक़्त की मार से अब ये निशां छूट रहे है,
सेंकना फ़िर से है मग़र अब साथ की चाहत नही पाल रखी मैंने..
-