चीख चीख कर रो रही हैं, देश की गलियाँ मेरी,
जब से कुचली जा रही हैं, देश की कलियाँ मेरी..
फूल जलते हैं यहाँ, और हवाएँ कैद हैं,
रास्ता भूली हैं खुद ही, देश की गलियाँ मेरी..
घूमते हैं फिर दुःशासन, चीर हरने को यहाँ,
कौरवों का खेल हैं अब, देश की गलियाँ मेरी..
जो निगेबाँ देश के, वो जान कर खामोश हैं,
राज़ कितने हैं छुपाये, देश की गलियाँ मेरी..
शर्म भी देखो यहाँ पर, खुद ही शर्मसार है,
रूह-ए-तार तार हैं अब, देश की गलियाँ मेरी..
तू सुने या ना सुने, रुदन यहाँ पर हो रहा,
हैं सिसकती रात भर अब,देश की गलियाँ मेरी..
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