तुम्हरी बातैं मधुर-मधुर थी,, रम जाती मेरे मन में,,,,। याद तुम्हारी सच-मुच न्यारी मन निर्जन कर दे क्षण में,,,,। भूतकाल क्या जिया था हमने नयन समाए नयनन में,,,,। भविष्य कठिन तुम्हरे बिन साथी क्षत-विक्षत जीवन क्षण में,,,,।
यदि किसी अरण्य में भयावह निर्जन वन में काई लगी हुई बाबरी के कोर पर पुरानी ईंटों से बनी मुंडेर के मोड़ पर चुना सुड़की रेत सीमेंट के खंड-खंड कर उग आए एक पीपल पुरुष भूखंड पर तो समझ लेना भयंकर युद्ध हुआ होगा प्रकृति एवं मानव निर्मित संसाधन के मध्य अंततः विजय श्री प्रकृति की ही हुई होगी
कुछ अपने दिल की भी कह लेते कुछ बुझी अग्नि को भी सह देते होती शांत ये व्याकुलता मन की गर बात ज़ुबाँ की तुंम कह देते कुछ अपने दिल.. मोती माणिक तिनका सम ,चाह नहीं कोई रस्ता रोके, कँकरीली दुर्गम राह नहीं खुशियाँ तेरे चेहरे की गर बन जाती गहना तुंम कहते तो निर्जन वन ,पत्थर पे सो लेते कुछ अपने दिल..
क्यों ना चला जाए उस निर्जन वन प्रदेश में, जहां सिवाय सर्राहट और मेरे कुछ ना हो, खोल दिया जाएं वहां इस निर्जन मन को भी, जो इन पत्तियों की भांति टूट चुका है, टूट गया है उस डाली से, जहां नव पल्लव की भांति कभी उभरा था, आज उसी से टूट कर बिखर गया है, ये सूनापन आज उसे सुकून पहुंचा रहा है, जहां कोई आवाज नही, सिवाय उसके मौन के, हर तरफ बिखरी ये पत्तियां, उसे अपना बिखरा हुआ एक एक दुख नजर आता हैं, जो पत्तियों की भांति सूख कर, सिर्फ उसकी कर्कश आवाज से कानों को दुख दे रहा है, और ये चलती रेतीली हवाएं, जैसे उसके मूल को उड़ाएं ले जा रही थी, और वो पीछे सिर्फ एक चलती सांस वाला इंसान खड़ा था ।