कुछ नाचिज बैखौफ से घुम रहे है समंदर में
खुद कश्ती मे सवार तूफाँ बेचने निकले हैं।
ये शहर सारा बाजार सा लगता है अब,
कि दौलत के अमीर अपना ईमाँ बेचने निकले हैं।
दो टक की रोटी नसीब में नही है यहाँ जिन्हें,
कई गरीब जिंदगी वाले अपनी जाँ बेचने निकले हैं।
कल तक बड़ी मोहब्बत थी इन्हें जिससे,
अपने हि बुलबुलो का गुलिस्ताँ बेचने निकले हैं।
पहले इन्होंने हमें घायल होने दिया,
और अब दुश्मन हमारे दरमाँ बेचने निकले है।
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