मैं विवश नही अब , मैं आदिशक्ति की ज्वाला हूँ । मैं हूँ अमृत , मैं ही विष का प्याला हूँ । मैं ही सृजनकर्ता , मैं संहारक हूँ । मैं देवों की जननी , संपूर्ण सृष्टि की पालक हूँ । पहचान मुझे मैं नारी हूँ , मैं पत्नी ,बहन , तेरी महतारी हूँ ।
घर में अकेली औरत .. ताकती रहती है देहरी की ओर प्रेम भरे नेत्रों से ... करती है प्रतीक्षा पति की ..बच्चों की .. उस अकेली औरत के मित्र होते हैं जूठे बर्तन उन्हीं के साथ खटपट होती है फिर बड़े ही प्रेम से पोछती है उन्हें रखती है सहेजकर सभी सामान .. रिश्ते भी .. नही बिखरने देती .. नही होने देती खटपट .. किसी की दासी नही होती है वह उस महल की रानी होती है .. रखती है अपनी निगरानी में सबकुछ .. माँ बनकर पूरे परिवार को पोषित करती है .. "घर में अकेली औरत" ही परिवार को पूर्ण करती है ..
आँखों में नवनीड़ का निर्माण लिये , मैं नारी धरती पर प्रेम का अवतार लिये .. मैं कुसुम , मैं ही हूँ अग्निधारिणी , हूँ अपने श्रृंगार में शस्रों -सा प्रहार लिये ..