ओ नाराज़गी,
तुम कुदरत का नायाब करिश्मा हो। कभी तुम झट से आकर दिन, महीनों, सालों रहती हो कभी तुरत-फुरत लौट जाती हो। कभी चुप्पी तो कभी शोर बनकर बाहर आती हो।
नाराज़गी तुम गुस्से जैसी बिल्कुल नहीं हो। गुस्से में थोड़ी देर के लिए ही सही, सामने वाला शत्रु लगता है। नाराज़गी के पीछे हमेंशा जिससे नाराज़ हुआ जाता है, उसकी भलाई की मंशा होती है। तुम सुधार की उम्मीद करती हो, मौके देती हो। तुम वापस चले जाने की मंशा से ही आती हो। तुम्हारे आते-जाते रहने से रिश्तों में जान बनी रहती है, ज़िन्दगी में रस बना रहता है। अपने अनोखे रंग-ख़ुश्बू-स्वाद से ज़िन्दगी मज़ेदार बनाने के लिए शुक्रिया।
तुम्हारा,
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