अभी उसने अपनी आँखे भी नहीं खोली थी ।
एक नवजात जो पाक था किसी मंदिर में चढ़े नाजुक फूल की तरह, पवित्र शायद उस गंगाजल से भी ज्यादा क्योंकि गंगा में तो फिर भी पापी स्नान करते हैं अपने मैलों को धो हम में से कुछ लोग उसमें कूङा फेंक उसे दूषित भी करते हैं, फिर भी हम उसे पावन कहते हैं उस गंगाजल को पवित्र मानते हैं । उसी तरह हम सभी अपने मन में निंदा, घृणा, लोभ, छल, कपट जैसे ना जाने कितने ही दुर्गुणों को लिए फिरते हैं फिर भी मानने से इंकार करते हैं । लेकिन उसका तो मन ही रिक्त था अच्छे-बुरे, गुण- अवगुण से परे, मन के मैल से, छल-कपट से दूर, निर्मल एक दम । फिर भी ना जाने क्यूँ, सङक के किनारे उस बच्चे को लोग घृणा की दृष्टि से देख रहे थे, आता-जाता हर शख़्स उसे कलंक कह रहा था ।
ना जाने क्यूँ...
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