चौखट पे दरवाज़े की
जो मौन था लगातार...
बिना थके एकटक लगाए
जो विस्मित था ,
शून्य में लीन ,
मन की विवशता में
ठिठक कर सामनें खड़ी हुईं
विस्तृत श्रंखला तमन्नाओं की
मन को झकझोरता एक सच,
एक ऐसा सच जो झूठ से भी काला था
जो दाग़ से भी गहरा
और सपनों से भी धुंधला सा था
तभी तो वो असमंजस में था
सच जो झूठ के पोशाक में था
अकेला वो भी था
जो दोहरी परिभाषा जानता था
विजय उसकी ना हुई
जो स्वयं में परिपूर्ण था
हार भी ना पाया वह
जो विश्वास में प्रतिपल बदल रहा था
हाँ समझा उसे जग
एक मैला सच!!
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