मेरी चराई हुई बकरियों के बच्चे...
मुझसे मांग रहे हैं...
हिसाब, उन चरागाहों का
जहाँ विचरते थे, उनके बाप-दादा
और,,,, मैं
नि:शब्द हो
देख रहा हूँ
एक शहर...
जिसके खुरों ने रौंद दिये है...
मेरे पहाड़,,,,
मेरे जंगल,,,
जो पी गया है, पानी
मेरी नदी का
जो लीलता जा रहा है....
मेरा अल्हड़पन...
मेरा बचपन...
और,,,,,,मैं
फिर भी....
उसकी चकाचौंध से....
आकृष्ट हो....
होता जा रहा हूँ
शहर....||
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