दिसंबर की सुनहरी दोपहर मे
'मेड़' ना जाने कितनी ही
कविताएँ सुस्ती से 'पसरी'
प्रतीत होती है.....
शब्द ऊँघते से दिखते है
जैसे 'चारपाई' पर कोई बालक
एक आँख खोले निढ़ाल पड़ा हो....
रात की ठिठुरन से कुम्हलाए
हुए कितने ही गीत इस
चमकीली धूप मे आँखे खोलने लगते है.....
नन्ही चिड़ियें जो रात की सर्द
निष्ठुर हवाओं से डर कर दुबक गई थी
इस गुनगुनाती सी दोपहर मे आपने
सुमधुर गीतों से फिर अटारी
को गुलज़ार करने लगी है....
वो सुन्दर कपोत युगल जो विकल था
अपने तिनको के आशियाने मे,
वो अब अठखेलियां कर रहा है.....
'पतंगे' जो ठिठुर के छुप गईं थी
अलमारी के किसी कोने मे
इस मनमोहक दोपहर मे आकाश मे
नवयौवना सी नृत्य प्रदर्शन कर रहीं है|
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