कभी छत से कभी खिड़की से कभी
पेड़ो की ओट से, हर रोज तुम्हें निहारती हैं!
कभी मुखडा़ कभी माथें की बिंदिया में
तो कभी दुप्पटे में चार-चांद लगाती हैं!
कभी पूर्ण, कभी अर्धं हर घटते बढ़ते
रुप को तुम्हारें अच्छे से पहचानती हैं!
बिखरती चांदनी दूध सी तुम्हारी, कभी
धुंधलाती कोहरें सी आँखो में सजाती हैं!
ईंद,कभी दूज़, कभी ती़ज तो कभी करवांचौथ
का चांद, ये हर जगह अपनी आभा बिखराती हैं !
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