ज़माने की बिसात का क्या कहिये जनाब
ज़ुर्म इसके सबब बदनामी का मिरी बनते हैं
मैने तो छोड़ने का शहर ये वायदा लिया था खुदसे
पर परिंदे यहां के अब भी कुछ छत पे मिरी दाना चुगते हैं
चला तो जाऊं के दर्द में थोड़ी ही सही कुछ कमी आए
पर वो ज़ुल्म पसंद मिरे ग़म की आरज़ू आज भी रखते हैं
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