अंतर्मन का शोर,
दुनिया के झूठे शोर से जीतना चाहता है,
झुठला देना चाहता है भीतर के द्वंद को,
हाथ छटपटाते है दर्पण के सामने,
नोच लेना चाहते है,
तलाशना चाहते है उस छवि को..
जो खो गई है कहीं मौन के गर्त मे।।
आँखों में आंसू है..मगर ये क्या,
ये प्रतिबिम्ब में अस्तित्व क्यों धुंधला सा है?
ये कैसा एकांत है जो इसमें क़ैद हो गया है?
जो सज़ा काट रहा है निर्दोषता की..
जैसे सारी संवेदनाएं मर गई हो,
झूठ और स्वार्थ के रिश्तों में बनी वो खाईयां..
आभावों की पीड़ा,ह्रदय को आघात पहुंचा रही है।।
और धुंधला प्रतिबिम्ब भी जैसे न्याय कर रहा हो,
सच्चाईयों को अपनाने को कह रहा हो,
विश्वास का टूटना,जीवन को अंधकार से भरता ही है,
अपेक्षाएं रखना गलत नहीं,
पर इस तरह खुद को कष्ट देकर,
नियति को बदला नहीं जा सकता,
इसलिए..
समेट लो हर अनुभव को,
शान्त कर लो इस भीतरी कोलाहल को,
वो अपने,वो प्रेम सिर्फ तुम्हारा था,है,और रहेगा..
उसे होंठों पर नहीं अंतस में रखकर,
सदा के लिए अपना बना लो।।
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