देख सागर का किनारा,
घर से निकल जाती हूँ,
कर के कोई बहाना।
सागर की अंगड़ाइयों में,
उफान-मारती लहरों में,
डूबती-उभरती कश्तियों में,
जिंदगी के रंग पुराने दिखे।
कुछ जाने, कुछ पहचाने दिखे।
कभी किनारे तो, कभी मझधारे दिखे।
थकावट से भरी जिंदगी है,
जिसमें गूंजती खमोशी बड़ी है,
कुछ मेरी है, कुछ दूसरों ने इकट्ठा कर रखी है।
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