दरख़्त से गिरी वो पत्तियाँ, है असहाय पीड़ा में.. कुचले जाने के डर से,
है दबी चिल्लाहटों में.. अस्तित्व खोने के डर से, दरख़्त से गिरी वो पत्तियाँ, . . . किसी ज़िद्दी तूफान के गुज़रने भर का असर है, क्षीणता को भोग रही वो गिरी पतियाँ !!
मेरे शहर की स्ट्रीट लाइट जब रोशन हुई कई दिनों के बाद तो चौंक उठी शहर का हाल देख। सोचने लगी कहीं ये सर पर आयी चोट का असर तो नहीं। वो भी गिर गयी थी तूफ़ान के दौरान।
कितने तकलीफ में था, मैं तुम्हें मालूम नहीं । बारहा दर्द दिया, दर्द में ढाला है मुझे ।। ये वक्ती आंधियां, मुझको डरा नहीं सकतीं । ज़लज़लों में रहा, तूफ़ान ने पाला है मुझे ।।
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