तकदीर, तवज्जो और मातम मनाने में,
गुज़ारा तमाम उम्र बस रूठने मनाने में,
हर्फ-दर-हर्फ करता रहा गुस्ताखियां
गुमां बाकी ही रहा उसके हर फ़साने में,
श़जर मानिंद खड़ा था लब सिले ही रहे,
वरना देर न थी घर उसके लौट आने में,
अल्फ़ाज़ जज्बातों का करते रहे सौदा
कसर बाकी न रखी हद से गुजर जाने में,
तल्ख़ मिज़ाजी से होता रहा वो रूबरू
अफ़सुर्दा कलम नाकाम दर्द जताने में !
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