दुनिया भर की यादें हम से मिलने आती हैं,
शाम ढलते ही मेरे घर में मेला लगता है-
स्वतंत्र चमकते सूरज को,
हर शाम में ढलते देखा है,
दुनिया के सारे रिश्तों को,
यूं रंग बदलते देखा है....
काटों से भरी इन राहों पर,
फूलों को चलते देखा है,
इश्क़ वफ़ा के वादों को,
हाथों से फिसलते देखा है...
देखा है दर्द को यूं हमने,
जीते जी जलते देखा है,
मुस्कानों के पीछे अक्सर,
अश्कों को मचलते देखा है...
पल भर में दूर यूं होते हैं,
गिर गिर के सम्भलते देखा है,
स्वतंत्र यहाँ एहसासों को,
लम्हों में बदलते देखा है....
सिद्धार्थ मिश्र-
मै करूँ भी तो किस बात का घमंड?
अपनी परछायी को भी हमने,
अंधेरे मे साथ छोड़ते देखा है।-
"लोगों ने उसे मेरी परछाई क्या कहा,
वो सूरज ढलते ही कहीं दूर चली गई..."-
समाज का रंग देखो, किस तरह का सुलूक है,
उगते सूरज को सलाम, ढलते सूरज को तिरस्कार है।
हर नई शुरुआत पर खुशी का हुजूम सजता है,
मगर पुरानी राहें, अक्सर ही नजरअंदाज होती हैं
दूसरे का सुख देख दुखी होना
दूसरे का दुख देख जश्न मनाना
यही समाज का चलन है
अपनी कमियां छुपाकर दूसरों पे फब्तियां कसना
प्रेम,दया,करुणा से दूर रहना
बस एक दूसरे से जलन है-
महँगी पड़ी बहुत ये आज़ादी हमको
बस यूँही एक ख़याल छू कर गुज़रा मुझे
बस ख़याल ही था.. छू कर गुज़र गया
दिन ढलते ढलते..-
"ढलते दिसंबर की तुमसे कुछ गुंजाइश है,
गुजर गया साल पूरा आज भी
तुझे पाने की इस दिल में ख्वाहिश है ,,Ap
AMSINGH
,,मेरा इश्क़,,-
धीरे-धीरे ढलते सूरज का सफ़र मेरा भी है,
शाम बतलाती है मुझको एक घर मेरा भी है...-
दिन ढलते गए
प्यार बढ़ता गया
एक तेरी यारी
उम्र भर के दर्द का
इलाज बनती गई-
जीवन को मैंने बड़े गौर से ढलते देखा है
लोगों को अपनी आदतें बदलते देखा है
बिना किसी मंजिल के राहों पर चलते देखा है
समाज में कुरीतियां और अत्याचार का बालक पलते देखा है
लोगों के मन में अहंकार का बीज फलते देखा है
इंसानों को आवश्यक जरूरतों की कमी खलते देखा है
सरल व्यक्तित्व को जटिल व्यक्तित्व में ढलते देखा है
खुशनुमा मौसम को अपना रंग बदलते देखा है
छोटो के मुंह से बड़ों के लिए अपशब्द निकलते देखा है
पक्के दोस्तों को दुश्मनों में बदलते देखा है
जीवन को मैंने..... बड़े गौर से ढलते देखा है।
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