सुनो आज हमने डांडिया खेल डाला मजनू की खाल मांग रही थी मसाला पहले जी भरके ठुकाई करी इधर घूंसा उधर लात धरी नवरात्रों में भी कमबख्त छेड़ रहा था मुझे भी चण्डिका का क्रोध भरा था जैसे ही छूने को आगे बडा़ दे घुमा दे पटक लठ्ठ बरसा दिया अब देखूं कैसे हाथ लगायेगा कैसे हुई थी ठुकाई याद आ जायेगा
नित्यप्रति तुम हवा में आकर झाड़ते हो पुष्प की डाली कोमल पंखुड़ियों को तुम तो मेरी राह बिछाते माली कनकचंपा पलाश की आस उन्मुक्त निरखती जाली कभी समीर कभी भंवरा बन प्रिय है आता भिन्न-भिन्न पाली पुष्पित पल्लवित मधुवन विभोर पुहुप विभिन्नता विस्तृत घुंघराली चतुर हो तुम प्रिय मेरे प्रति अनंत तोड़ते हो पुष्प केवल उत्पाली चुन-चुनकर जिसे मैं हूँ गुंथती पहनाती कवि कवियत्री भोली-भाली
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